Friday, July 21, 2017

एक नदी

सूखी सी एक नदी
दूर कहीं किनारों को मिलते है देखती
रेत के फैले आकाश पे
अपने अरमानों को सिमटते है देखती

कभी नवयौवना सी
यूँ इठलाती थी जो
जलदर्पण में आज
स्वयं को प्रौढ़ होते है देखती

जीवन का प्रतीक बानी निर्झर सी कभी
जो एक चंचला सी थी
आज चार कदमों से चलने को
घने बादलों की राह है देखती

जीवन की एक ये कहानी
अब पूरी सी है होती
जो एक धारा से आरम्भ थी हुई
अब एक धारा सी बस है बहती

सूखी सी वो नदी
कुछ सोचकर है भी मुस्कुराती
आज नहीं, यहां नहीं
और कहीं, कभी और

किसी शिला को भेदकर
किसी की जटाओं में बंधकर
भूमि से निकलकर
हर बंधन को तोड़कर

आस पुनरागमन की लेकर
वो आंखें मूंद लेती है
अब भी कुछ बहती और थमती है
सूखी सी वो नदी ।।

------------------------------------------- नीलाभ

Expression - A river bed dried and empty often forces me to think what would be the river like when it was free from all bounds , alive and spirited. Rather than having pity over oneself the river promises to flow again breaking the barriers that have held it always. Isn't it true for the spirit that lives in all as does the Metaphors everywhere :)

नवयौवना = on the brink of youthful age.
जलदर्पण = mirror created by reflection in water.
प्रौढ़ = aged
पुनरागमन = return / second coming.

Friday, March 17, 2017

झूठ की उम्र

एक सच लिए मैं बैठा रहा शाम तक बाज़ार में
और झूठ वो सबके हाथों हाथ बिकते रहे इस कारोबार में

झूठ जो सबकी पसंद था
देखने में नया सा वसंत था
आकर्षक से कागज़ों में लिपटा हुआ
मेरे सूखे से सच पर एक व्यंग था

हाँ सच मेरा मजबूत तो था
पर कुछ सादा और बेरंग था
जगमगाता ना था और ना ही रंगीन था
लेकिन सच तो था वो इसका मुझे यकीन था

धुप में पसीना बहा मैं इंतज़ार करता रहा
सच का होगा कोई ख़रीदार ये ख़ुद से कहता रहा

सामने आलिशान सी दुकानों पे भीड़ बढ़ती रही
झूठ की उम्र सूरज के ताप सी चढ़ती रही
शाम ढले तक यूँ ही मैं खाली बैठा रहा
इस झूठ और सच के बीच के फ़र्क को समझता रहा

आखिर वो सच था इसलिए शायद फीका था
झूठ सा ना मसालेदार था ना तीख़ा था
सच शायद मेरा उतना चमकदार भी ना था
झूठ की रंगीनियों सा रंगदार ना था

फिर भी मेरे सच पे मुझे कितना अभिमान था
बाज़ार के ऊसूलों से मैं लेकिन कितना अंजान था

अँधेरा भी धीरे धीरे बढ़ने लगा
सच से भरी टोकरी उठा मैं वापस चलने लगा
बोझ मेरे सर पे सच का अब भी था
खाली हाथ घर लौटने का कुछ दर्द भी था

पर रास्ते में वो रंगीन से कागज़ फिर दिखे
मानो कुछ कहने समझने को बीच राह में ही रुक गये

कागज़ जो झूठ के रंगीन लिहाफ़ थे
सबसे पहले ही साथ छोड़ गये
सड़क के किनारे पड़े
कूड़े के ढेर से नाता जोड़ गये

इन कदमों को जो आगे बढ़ाया
तो कुछ और भी नज़र आया

झूठ के ढ़ेर रास्ते पे फैले से मिले
यूँ लगा मानो तंग आकर फेंके थे गये

यूँ ही चलते चलते मुझे झूठ
सड़क के हर छोर पे मिलता रहा
हर खरीदार को देके दग़ा
वो उम्मीद ऐ वफ़ा करता रहा

जिसे बेचा गया था बाज़ार में बड़े शोर के साथ
वो झूठ आधे दिन की भी दूरी ना तय कर पाया
वक़्त के तराजू पे जो तौल लिया आज उसे
तो सच के सामने उसका वजन ना ठहर पाया

उम्मीद जो शाम के अँधेरे में जाती सी रही
हर बढ़ाते कदम से फिर लौट आती रही
झूठ की उम्र जान कर मेरे
दिल में सच की रौशनी जगमगाती रही

अगले दिन की आस लिए मैं मुस्कुराकर चल दिया
ये सोच के की सच के बोझ में भी सुकून ज़रूर होगा
और कभी तो कोई ख़रीदार मेरे सच का भी होगा
जिसे आखिर सच की कीमत का अहसास होगा ।।

------------------------------------------- नीलाभ

Expression - Ever thought that doing the right thing is important but not always it is easy. Far more easy ways are readily available but they are not the "Right Ways". An Expression of dilemma, a conflict that often takes place deep within my heart when I question myself "Am I doing the Right thing, when others are ahead of me, taking easy ways"

नया सा वसंत = A new season of Spring
व्यंग = Satire
लिहाफ़ = Cover
दग़ा = Betrayal
उम्मीद ऐ वफ़ा = Expectation of Loyality