Thursday, December 31, 2020

एक साल नया..

एक साल नया है फिर आया,
मुझसे कहने....
मेरी सुनने....
कोई बात नई है फिर लाया ।।

एक बीत गया, लेकर जो गया
यादें कई, देकर भी गया,
कुछ गवां दिया और खो भी गया,
लेकिन सोचें क्या है पाया ।।

 कुछ यार मिले, हाँ ख़ास मिले,
कुछ ख़ुशी मिली, कुछ मिटे गिले,
हुआ कहीं सफ़र, ये आसान भी,
जो हम मिलकर, यूँ साथ चले ।।

आंधी तूफ़ान, कितने मौसम,
कितनी खुशियाँ और थोड़े ग़म,
बीते लम्हों से जो भी मिला,
है सर आँखों पे हमने लिया,
आगे बेहतर कुछ और मिले,
जीवन में रंग उमंग खिले ।।

फिर घड़ी के काँटे जो सरकें,
और सूरज हौले से चमके,
फिर हमने भी जो माँगा है,
वो दुआ तेरे दर तक पहुँचे,
और फिर मुस्काने यूँ ठहरें,
सुबह शाम चारों पहरें,
लो एक नया दिन है ये लाया,
एक साल नया है फिर आया ।।

------------------------------------------ नीलाभ

Expression - Written half a decade ago this poem couldn't be more significant than today when we bid adieu to 2020, The Year of Pandemic. 
Wishing a Happy, Healthy and Safe New Year 2021. 


Friday, October 9, 2020

शहर..

ये शहर अनजाना सा है,
        कुछ जाना पहचाना भी है,
ये तो जानता हूँ मैं,
         एक दशक से मैं इसमें बसता हूँ,
पर ये ना जाना कभी,
          हौले से छुपकर ये भी मुझमें बसता है ।।

कभी मैं इससे, ख़फ़ा सा हो जाता हूँ
पूछता भी हूँ, कि क्यूँ तू वैसा नहीं है
जो देखते ही तुझसे,
इक इश्क़ सा हो जाये ।
नाराज़ भी होता हूँ इससे,
जो मेरे ख्वाबों का आकाश, कम दिखता है यहां से ।।

कभी जो रास्ते, सख़्त से हो जाते इस शहर के,
और ठोकरें खाकर, मेरे कदम हैं थक जाते,
आँसुओं के साथ, जो मिट्टी आँखों में है भर जाती,
तो कोस भी लेता हूँ, इसे ही जी भर के ।।

ये शायद चुपचाप, सुनता है मेरे ताने,
मेरी खामोशी, मेरी आवाज़, मेरे तराने, 

मैं याद करता हूँ, उन अंधेरी रातों को भी
जब हौसलों के टूट जाने पर,
एक टक देखता था मैं,
अकेले उस सूने आसमान की ओर,
तब ये शहर ही तो था,
जो करता था बात, मुस्कुराकर मेरी ओर ।।

मेरे कंधे पर हाथ रखकर,
संभाला भी तो था इसी ने,
मेरे लड़खड़ा कर गिरने पर, 
आँसू भी गिराए थे, शायद इसी ने ।।

हर सुबह ये शहर ही तो है, जो कहता है मुझसे,
दौड़ जब तक तेरे पाँव के छाले, खुद तेरा रास्ता ना बता दें,
कि बदलता तो रहेगा ही, पता मंज़िलों का तेरी
तू बस रुक ना जाना, राहों में कहीं
और पलकें जो हो जाएं, ग़र बोझिल तेरी 
थक कर सो भी जाना, मेरी बाहों में कभी

ये शहर, 
जो अनजाना सा लगता था कभी,
हाँ, 
अब जाना पहचाना लगता है यूँ ही ।।

------------------------------------------ नीलाभ

Expression - When I moved to this new city a decade ago, I had nothing but complaints. Year after year, those complaints grew but somewhere this city also gave me it's moments of love and hope. Deep down this is my version of Frank Sinatra's 'This town'

The thought behind this expression was inspired from a moment captured by a wonderful photographer and my dear friend Ankit Trivedi. All credits to him for the original thought.
Check out his work at his instagram handle @trivedi.jpeg

Saturday, May 9, 2020

कलम से गुफ्तगूं

बड़े दिनों बाद 
आज फिर यूँ कलम उठाया है,
कुछ कहने की आस लिए
ख़यालों को आज फिर जगाया है,

हाथों में लिए उसे 
जो हरफ़े लिखने की कोशिश की,
सोच ना था रूठकर 
वो भी कभी अड़ जाएगी,
ज़िद में वो आज
मुझसे भी आगे बढ़ जाएगी,

वो कहती है अब 
और ना लिख पाऊँगी,
बहुत कुछ कहा है तूने मुझसे,
अब औरों को ना कह पाऊँगी,
तेरे ख़्यालों को अब 
मैं आवाज़ ना दे पाऊँगी,

हाँ मैं वही हूँ...
जो कभी तेरे विचारों के लहरों में
जाने कितने दूर बह सी जाती हूँ,
कभी तेरे आँसुओं को समेट कर
स्याहियों में मैं ही समाती हूँ,
कभी किसी निर्झर सा स्वछन्द
मैंने तेरी अठखेलियों में साथ है दिया,
कभी तेरे भीतर सहमते विचारों को
मैंने भयहीन कर ब्रह्म का अस्त्र तुझे दिया,
पर यूँ ही आगे ना कर पाऊँगी,
वो फिर कहती है
अब और ना लिख पाऊँगी,

 हाँ.. मैं और ना लिख पाऊँगी,
 उन शब्दों को तेरे लिए 
ना मैं अब अपने रंगों से सजाऊँगी,
 कभी तेरे लिए रोज़ नए पंख बुने तो हैं मैंने
 पर अब तुझे और उड़ने को आकाश ना दे पाऊँगी,
वो कुछ ठहरकर कहती है
अब और ना लिख पाऊँगी,

फ़र्क क्या पड़ता है वो पूछती है,
ग़र मैं अब ना भी लिखूँ,
फ़र्क क्या पड़ता है अगर
अब तेरी आवाज़ ना भी बनूँ,
तेरे ख़्याल अगर बस तेरे ज़हन में रहे तो क्या बुरा है,
ग़र उन्हें अब कोई ना भी पढ़े तो कौन से ग़ुनाह है,

मैं उस रूठे साथी की ओर मुस्कुरा कर देखता हूँ,
जवाब तो कई हैं मेरे पास पर फिर भी सोचता हूँ,
जिस शिद्दत से मैंने कभी वो पहले शब्द लिखे थे अपने,
उसी शिद्दत से आज उसे वापस कहता हूँ,

फ़र्क ये नहीं है कि कोई पढ़े या ना पढ़े मेरे शब्दों को,
बात ये भी नहीं की महफ़िल बैठी है कहीं
सुनने मेरे नग़मों को,
क्योंकि मैं कोई सूर्य नहीं हूँ,
जो हर सुबह एक विशाल परिदृश्य को प्रकाश से भर दूँ,
ना ही मैं वो तरिणी हूँ,
जो पूरे गाँव की प्यास तृप्त कर दूँ,

तो फ़र्क शायद ना भी पड़े
मैं अगर ये मान भी लूँ कुछ पलों के लिए,
तो भी एक ग़म रह जाएगा,
कहीं एक छोटा से दिया
किसी आंगन को ज़रूर रौशन कर देता,
कहीं कुछ ओस की बूदें थी
जो एक चकोर की तृष्णा से मिल जातीं,
हाँ कहने को बहुत कुछ था 
और शायद मेरी आवाज़ सुनी भी जाती,
अगर मेरी प्रिये, आज तू यूँ रूठ कर ना बैठ जाती ।।

------------------------------------------- नीलाभ

Expression - Someday when I may loose myself and my love refuses to love me back. I may have this chat with my first love 'my poetry' only to convince her to reciprocate my love.

 हरफ़े = albhabets
निर्झर = spring / waterfall
स्वछन्द = free 
अठखेलियाँ = the state of being lively, spirited playful, carefree
शिद्दत = passionate
नग़मा = songs
तरिणी = river
तृष्णा = thirst